रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे
बूंदन परत फुहार रे
दादुर, मौर, पपीहा बोले
कोयल करत पुकार रे
कोई गाये सावन कजरी
कोई मेघ मल्हार रे
बिन सजनी के सूना लागे
घर आँगन ओ द्वार रे
सारी सखियाँ बनठन आई
झुले प्रेम हिण्डोले रे
मेरी सजनी दूर बसत है
लागे सावन बेरी रे
बिन सजनी के कैसा सावन
कैसा तीज-त्योंहार रे
फीका लगता मुझ को सावन
बिन बिछुवन झंकार रे।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
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