Friday, February 2, 2018

बिन सजनी के कैसा सावन

रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे 
बूंदन परत फुहार रे 
दादुर, मौर, पपीहा बोले 
कोयल करत पुकार रे 

कोई गाये सावन कजरी 
कोई मेघ मल्हार रे 
बिन सजनी के सूना लागे 
घर आँगन ओ द्वार रे 

सारी सखियाँ बनठन आई 
झुले  प्रेम हिण्डोले रे 
मेरी सजनी दूर बसत है 
लागे सावन बेरी रे 

बिन सजनी के कैसा सावन 
कैसा तीज-त्योंहार रे 
फीका लगता मुझ को सावन 
बिन बिछुवन झंकार रे।  



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

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