तुम्हारे जाने के बाद
मैं अपने ही घर में
एक अजनबी की तरह
रहने लग गया हूँ
कम बोलना और
ज्यादा सुनने का प्रयास
करने लग गया हूँ
कोई कुछ भी कहता है
तो मान लेता हूँ
तर्क अब नहीं करता हूँ
किस से करू तर्क
किससे कहूँ मन की बात
तुम्हारे सिवा कोई
हमजुबां रहा भी तो नहीं
जज्बातों का
सैलाब उठता है
नाराजगियों का
तूफ़ान भी उठता है
मगर उम्र के
इस पड़ाव पर
जिन्दगी को किसी तरह
सम्भाले चल रहा हूँ।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
मैं अपने ही घर में
एक अजनबी की तरह
रहने लग गया हूँ
कम बोलना और
ज्यादा सुनने का प्रयास
करने लग गया हूँ
कोई कुछ भी कहता है
तो मान लेता हूँ
तर्क अब नहीं करता हूँ
किस से करू तर्क
किससे कहूँ मन की बात
तुम्हारे सिवा कोई
हमजुबां रहा भी तो नहीं
जज्बातों का
सैलाब उठता है
नाराजगियों का
तूफ़ान भी उठता है
मगर उम्र के
इस पड़ाव पर
जिन्दगी को किसी तरह
सम्भाले चल रहा हूँ।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
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