मैं रोज करता हूँ
तुम्हारा इन्तजार कि
शायद तुम आज आओगी
वर्षात आई और चली गई
मैं इन्तजार करता रहा
मगर तुम नहीं आई
तुम्हारा इन्तजार कि
शायद तुम आज आओगी
वर्षात आई और चली गई
मैं इन्तजार करता रहा
मगर तुम नहीं आई
पुरे सावन छतरी ताने
इन्तजार में खड़ा रहा
मगर तुम नहीं आई
हर सुबह से शुरु होता है
तुम्हारा इन्तजार और
शाम ढल जाती है
अगले दिन फिर एक नए
इन्तजार के साथ
एक नई भोर शुरू हो जाती है
करते-करते इन्तजार
पोर-पोर टूट गया है मेरा
कब ख़त्म होगा
तुम्हारा इन्तजार और
शाम ढल जाती है
अगले दिन फिर एक नए
इन्तजार के साथ
एक नई भोर शुरू हो जाती है
करते-करते इन्तजार
पोर-पोर टूट गया है मेरा
कब ख़त्म होगा
यह इन्तजार तेरा।
नहीं जानने में एक कसक है
ReplyDeleteएक पागलपन है और एक ललक है।
शानदार प्रस्तुति
मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत रहेगा
आभार आपका।
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