Monday, August 13, 2018

यह इन्तजार तुम्हारा

मैं रोज करता हूँ
तुम्हारा इन्तजार कि
शायद तुम आज आओगी

वर्षात आई और चली गई
मैं इन्तजार करता रहा
मगर तुम नहीं आई 

पुरे सावन छतरी ताने 
इन्तजार में खड़ा रहा
मगर तुम नहीं आई

हर सुबह से शुरु होता है
तुम्हारा इन्तजार और
शाम ढल जाती है

अगले दिन फिर एक नए
इन्तजार के साथ
एक नई भोर शुरू हो जाती है

करते-करते इन्तजार
पोर-पोर टूट गया है मेरा
कब ख़त्म होगा
यह इन्तजार तेरा।

2 comments:

  1. नहीं जानने में एक कसक है
    एक पागलपन है और एक ललक है।

    शानदार प्रस्तुति


    मेरे ब्लाग पर आपका स्वागत रहेगा

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