गाँव के नौजवान
जो गाँव के गौरव थे
शहर चले गएवो चलाते हैं वहाँ रिक्शा
खींचते हैं गाड़ियाँ
करतें हैं दिहाड़ी
भरते हैं पेट अपना।
गाँव की ललनायें
जो गाँव की शोभा थी
शहर चली गईं
वो वहाँ करती हैं
घरों में चौका-बरतन
लगाती हैं पोंछा
धोती हैं कपड़ा
भरती हैं पेट अपना।
गाँव के नौनिहाल
जो गाँव की मुस्कान थे
शहर चले गए
वो वहाँ करते हैं
गाड़ियों की धुलाई
ढाबों पर खिलाते हैं खाना
भट्टों पर करते हैं काम
भरते हैं पेट अपना।
गाँव में अब केवल
बुड्ढे रहते हैं
जो राह में आँखें बिछाये
करते हैं इन्तजार
काश ! कोई लौट आए अपना।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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