मै जब भी
ऋषिकेश जाता हूँ
हिमालय मुझे मौन निमंत्रण
देने लगता है
देने लगता है
मै चला जाता हूँ
हिमालय के विस्तृत
आँगन मे जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ
आँगन मे जँहा हैं कई सौन्दर्य पीठ
देवप्रयाग
रुद्रप्रयाग -सोनप्रयाग
चोपता, तुंगनाथ और जोसीमठ
जंहा चारों ओर
होते हैं ऊँचे ऊँचे पहाड़
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ
हरे- भरे खेत और सुन्दर वादियाँ
चहकते रंग- बिरंगे पक्षी
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली
बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और नाद करते झरनें
कल-कल करती गंगा - यमुना
जंगली फूल और हँसती हरियाली
बिखरा प्राकृतिक सौन्दर्य
बहते नाले और नाद करते झरनें
शिखरों पर पड़ी अकलुषित हिमराशी
खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ हवा
पहाड़ों में बरसती
उस शुभ्र कान्ति को देख
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है
मैंने गंग -यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल को
सुनहला और नारंगी होते देखा है
खिली-खिली चाँदनी रातें
गुदगुदी सी मीठी सुनहली धूप
प्राणों को स्निग्ध करदेने वाली स्वच्छ हवा
पहाड़ों में बरसती
उस शुभ्र कान्ति को देख
मौन भी सचमुच मधु हो जाता है
मैंने गंग -यमुना के गीत सुने है
गोधूली बेला में उसके मटमैले धरातल को
सुनहला और नारंगी होते देखा है
सात बार बद्री
और तीन बार केदार के
मंगलमय दर्शन का सुख पा चुका हूँ
दो बार
गंगोत्री और यमुनोत्री की
चढ़ाई का आनन्द भी ले चुका हूँ
कलकत्ते की
व्यस्तता के बीच
जब भी समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ
जब भी समय पाता हूँ
हिमालय की वादियों में चला जाता हूँ
बनजारा मन
होते हुए भी आँगन का पंछी हूँ
कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
वापिस घर लौटआता हूँ।
होते हुए भी आँगन का पंछी हूँ
कुछ दिन हिमालय के आँचल में फुदक
वापिस घर लौटआता हूँ।
कोलकत्ता
१६ सितम्बर, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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