Monday, August 28, 2017

मेरे अन्तर्मन में

तुम चली गई
इस धराधाम से
पर आज भी बैठी हो
मेरे अन्तर्मन में
जैसे रह जाती है
पहली वर्षा के बाद
मिट्टी में सौंधी महक
जैसे ढ़लता सूरज
छोड़ जाता है
झीने बादलों पर लाली
वैसे ही आज भी
तुम्हारी आँखों मस्ती
तुम्हारी प्यारी हँसी
तुम्हारा समर्पण -भाव
तुम्हारा शील-स्वाभाव
सब कुछ बसा है
मेरे अन्तर्मन में
जो बह कर आ रहा है
मेरी कविताओं में
मेरे भावों में
मेरी बातों में।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

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