Monday, September 18, 2017

एक खुशनुमा तितली

जब तक रही
एक कली बन रही
अंतस को छूती रही
बिन मांगे गंध भरती रही

खुशबु बन
फ़ैलाती रही
अपनी सुवास
चहुं ओर

फूल की
पत्ती-पत्ती पर
लिखती रही
अपना नाम

जाते-जाते
खुशनुमा तितली बन
उड़ गई फूलों से
बिखेर गई अपने सारे रंग।



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

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