जब तक रही
एक कली बन रही
अंतस को छूती रही
बिन मांगे गंध भरती रही
खुशबु बन
फ़ैलाती रही
अपनी सुवास
चहुं ओर
फूल की
पत्ती-पत्ती पर
लिखती रही
अपना नाम
जाते-जाते
खुशनुमा तितली बन
उड़ गई फूलों से
बिखेर गई अपने सारे रंग।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
एक कली बन रही
अंतस को छूती रही
बिन मांगे गंध भरती रही
खुशबु बन
फ़ैलाती रही
अपनी सुवास
चहुं ओर
फूल की
पत्ती-पत्ती पर
लिखती रही
अपना नाम
जाते-जाते
खुशनुमा तितली बन
उड़ गई फूलों से
बिखेर गई अपने सारे रंग।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
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