गाँव में
गर्मियों के दिनों में
छत पर पानी डाल कर
ठंडा कर दिया करते थे
शाम का
धुंधलका होते ही
धुंधलका होते ही
छत पर चले जाते थे
बिस्तर पर
लेटे-लेटे खुले आसमान में
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे
लेटे-लेटे खुले आसमान में
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया को
देखा करते थे
चाँद के सरासर
सामने सप्तऋषियों को बाँधने
और तारों को फँसाने का
गुमान करते थे
रात में तारों की बरात
और टूटते तारों का नजारा
देखना अच्छा लगता था
ये सब
करते-करते
करते-करते
कब नींद आ जाती
पता भी नही लगता था
अब रात को
आसमान की जगह
केवल कमरे की छत
दिखाई देती है
दिखाई देती है
लेटे-लेटे
गाँव की सुनहरी
यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
छत दिखाई देती है।
गाँव की सुनहरी
यादों में खो जाता हूँ
अब भी सपने में गांव की
छत दिखाई देती है।
कोलकत्ता
७ नवम्बर, 2009
७ नवम्बर, 2009
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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