बड़ी चंचल है तुम्हारी यादें
वक्त-बेवक्त,गाहे-बे-गाहे
जब होती मर्जी चली आती है
न मन के द्वार पर दस्तक देती
न दिल को हरकारा भेजती
न दिमाग की कॉल बेल बजाती
न दिल को हरकारा भेजती
न दिमाग की कॉल बेल बजाती
न सुबह-शाम देखती
न रात-दिन देखती
पलक झपकते ही चली आती है
न कोई आने का अंदेशा
न कोई सन्देशा
न ही कोई इशारा
आती है अचानक ऐसे
जैसे खामोश झील में
डाल दिया हो किसी ने कंकड़
जैसे कान्हा के मन्दिर में
अचानक किसी ने
बजा दी हो घंटियाँ
तुम्हारी चंचल यादों की
भीनी-भीनी खुशबु
छा जाती है दिलो दिमाग में।
[ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]