मेहनत उस बूढ़े की
कड़कड़ाती धूप में सवारी ढ़ोना,
कमाना दो पैसे
दो जून की रोटी के लिए।
मेहनत उस औरत की
घर-घर जाकर बर्तन माँजना,
कमाना दो पैसे
बेटे को पढ़ने के लिए।
मेहनत उस मजदुर की
दिन भर ईंट-गारा ढोना
कमाना दो पैसे
परिवार को पालने के लिए
मेहनत उस बच्चे की
दिन भर बूट पोलिस करना
कमाना दो पैसे
बीमार माँ की दवा के लिए
क्या इस देश का गरीब
सदा इसी तरह से
पिसता रहेगा ?
क्या वह जीवन की
मूलभूत आवश्यकताओं के लिए
सदा ही तरसता रहेगा ?
कब आएगा वह दिन
जब वो सुख से
अपनी जिंदगी को जी सकेगा ?
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
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