गांव में था
पहचान थी
सदा नाम से
जाना जाता मैं
गांव से निकला
बह गया धारा में
धारा से नदी
नदी से समद्र
समा गया मैं
अफ़सोस
अब महानगर में हूँ
यहाँ होकर भी
नहीं हूँ मैं
अब नाम से नहीं
मकान नम्बर से
जाना जाता हूँ मैं
वापिस
कैसे जाऊँ वहाँ
जहॉं पैदा हुआ मैं।
गांव में बापू के
घर के दरवाजे सदा
खुले रहते थे
सबके लिए
घर आए मेहमानों
और राहगीरों के लिए
जिन्होनें कभी कुछ
नहीं माँगा जीवन से
उन गरीबों के लिए
अजनबी दोस्तों
और अजनबी
भाइयों के लिए
रखते थे बड़ा दिल
सब के लिए
लेकिन कोई
अपने घमंड में चूर
प्रहार करता है
हमारे गढ़ के दरवाजे पर
कब्ज़ा करने के लिए
लेकिब ख़्याल रहे
जल्द ही वह दिन आएगा
जब वह पछ्ताएगा
यह धूर्ततापूर्ण विनाश
घातक है
अपराध है
दंड का विधान है
सबके लिए।
स्वर्ग से उतर
धरती पर आने वालो
धर्म का चोगा पहन
सहिशुण्ता का पाठ
पढ़ने वालो
कब तक
अपनी जंजीरों से बँधे
बंधुवा मजदूरों की तरह
धरती को स्वर्ग
बनाने का ख़्वाब
देखते रहोगे
उठो, जागो, दहाड़ो
कब होगा तुम्हारा घर
बल्कि तुम्हारा वतन ?
इस धरा को
बोया गया है
मौत के बीज से
लेकिन मौत
अंत नहीं है
मौत का
यह तो केवल
एक रास्ता है
अदृश्य विमान में
सवार होकर
अंतरिक्ष तक
उठ जाने का
नई खुशियों
और वरदानों संग
फिर से लौट आने का।