रोशनी अभी उन घरों तक नहीं पहुंची
जो जिंदगी भर अंधेरों से लड़ते रहें हैं।
कौन सच्चा और कौन झूठा कैसे जाने
चहरे तो सभी नकाबों से ठकते रहें हैं।
उन पेड़ों की सुरक्षा अभी भी नहीं हुई
जो सदा राहगीरों को छांव देते रहें हैं।
मिट्टी के पक्के घड़े खन्न-खन्न बोलते हैं
वो सदा तप - तप कर निकलते रहें हैं।
चुनाव में आश्वासनों की रेवड़ी बाँटते हैं
चुनावों के बाद सदा मुँह फेरते रहें हैं।
समृद्धि आज भी उनके घर नहीं पहुंची
जो खेतों में अन्न उगा सबको देते रहें हैं।
झोपड़ों के भाग्य पर जो आँसू बहाते हैं
वो अपने सोने के महल बनवाते रहें हैं।