Monday, January 31, 2011

रेशमी कीड़ा



रेशमी कीड़ा 
सुरक्षित भविष्य
के लिए अपने जिस्म
के चारों और एक जाल
बुनता हैं- कूकून

मानव
उस  कीड़े को
गर्म पानी में डाल
कर उसका वध करता है
 फिर उसके कूकून को नोच
कर अपने लिए वस्त्र बनाता है 


रेशमी वस्त्र
पहनने वालों ने
क्या कभी उस कीड़े की  
शहादत को भी याद किया है। 



कोलकत्ता
३० जनवरी, २०११ 

(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Saturday, January 15, 2011

बेटियाँ

      


हवा के शीतल झोंकों की
तरह  माँ- बाप को 
 प्यारी होती हैं बेटियाँ


घर खुशी से महक उठता है 
जब हँसती और
मुस्क़ुराती हैं बेटियां

                                                                मर्यादाओं की सीमाओं 
और  संस्कारों  में 
पली-बड़ी होती हैं बेटियां

बड़ी होने से पहले ही 
 समझदार हो कर 
 आगे निकल जाती हैं बेटियां

गले  में बांहों क़ा झूला बना  
 माँ को बचपन  याद 
 करा देती हैं बेटियां

कोयल की तरह मधुर
  स्वरलहरी सुना 
 एक दिन उङजाती है बेटियां

दीवार पर अपने पीले हाथों
 के निशान लगा
आँगन छोड़ चली जाती है बेटियां। 
 
ससुराल में पत्नी, बहू 
दिवरानी, भाभी 
जैसे रिश्ते फिर निभाती हैं बेटियां। 


कोलकत्ता
११ अगस्त,२०११  
(यह कविता  "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

Friday, January 14, 2011

बादल आये




                                     

बादल आये  बादल आये, 
रंग - रंगीले  बादल आये। 

गड़-गड़ करते सोर मचाते,
मानो   घोड़े नभ  में उड़ते। 

गोरे  बादल, काले  बादल, 
पानी  है  बरसाए   बादल। 

चम-चम बिजली चमकाए,
धुड़ूम-धुड़ूम पानी बरसाए। 

जीवनदायी जल  बरसाते,
नहीं किसी को ये तरसाते। 

बरसाते ये नभ से मोती,
चाँदी जैसा बहता पानी |

महक उठी धरती से सोंधी,   
हवा  हो  गई  ठंडी - ठंडी |

जंगल में मंगल हो  जाए,
बादल  जब पानी  बसाए | 

कोलकत्ता
१४ जनवरी, २०११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित  है )