Saturday, May 20, 2017

जीवन का एक कटु सत्य

सुबह सवेरे
चाय के साथ
जब मैं सन्मार्ग पढ़ता हूँ
मुख्य पृष्ठ पर
सरसरी निगाहें डाल
मैं सीधा तथाकथित पेज
पर चला जाता हूँ
जहां एक अदद तस्वीर
के  साथ लिखा होता है
"बड़े दुःख के साथ सूचित
किया जाता है कि  ----"
यह देखने कि आज कोई
परिचित तो नहीं चला गया

मन में ख़याल आता है
एक दिन मेरा फोटो भी
इसी पेज पर छपेगा
मैं भी उस दिन एक
समाचार बन जावूंगा

घरकी दीवार पर फ्रेम में
लग जाएगी एक तस्वीर
पहना दी जाएगी माला
पुण्य तिथि पर बहु
एक पंडित को बुला कर
करवा देगी भोजन
दे देगी दक्षिणा में
एक धोती-गंजी और चंद रुपये।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]




Saturday, May 13, 2017

कुछ तो कह कर जाती

आज अचानक
सुना हो गया मेरा जीवन
क्या गलती की थी मैंने
जो मिला विछोह का
इतना बड़ा दर्द
अब तो आजीवन
अफसोस ही बना रहेगा
अंत समय नहीं था पास तुम्हारे
तुमने इतना वक्त भी नहीं दिया
कि आकर कर लेता थोड़ी सी बात
लोग पूरी करते है शतायु
अभी तो कईं बरस बाकी थे
रुक जाती कुछ और
भोगती जीवन का सुख
करते-करते सबकी देखभाल
अभी जाकर ही तो मिला था
थोड़ा आराम
चार-चार बेटे-बहुएं
सात पोते-पोतियाँ
भरा-पूरा परिवार
सब सुख था जीवन में
जानें क्यों रुठ गई अचानक
चली गई अनंत में
कहाँ खोजें और कहाँ देखें
अब कहने को भी कुछ नहीं बचा
शिकायत करें तो भी किससे
तुम तो चली गई
काश ! जाने से पहले
कुछ तो कह कर जाती।


                                            [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]




Friday, May 12, 2017

चीन की धरती पर

आज की तारीख
अठाइस अप्रेल दो हजार 
सतरह -शुक्रवार 
मैं चीन की धरती पर।

सिर ताने खड़ी है मेरे सामने 
चीन की विशालतम दिवार
फुसफुसा रही है वो 
कुछ कहने को मुझे।

मैं पास गया 
टूटे-फूटे पत्थरों से 
आवाज आई 
अकेले आये हो 
कहाँ है तुम्हारी जीवन संगिनी
क्यों नहीं लाये साथ उसे ?

जब तुम आस्ट्रेलिया के
समुद्री नजारों को देखने गए
जब तुम स्वीट्जरलैण्ड की
मनोरम वादियाँ देखने गए
जब वेनिस की ठण्डी हवा खाने गए
जब ग्रेट बैरीयर रीफ देखने गए
हर समय वो तुम्हारे साथ रही।

आज क्यों छोड़ आये
क्यों नहीं साथ लाए उसे
चीन की दीवार दिखाने ?

मेरे लिए कदम बढ़ाना
मुश्किल हो गया
मन में इस तरह के भाव
पहले भी कईं बार आ चुके हैं। 

चाहे वो गोवा के समुद्र तट हो 
या दुबई की गर्म रेत,
जहां भी मैं अकेला गया 
मेरे मन को हर जगह 
यह  सुनाई पड़ा

मैं भारी कदमों से
आगे बढ़ता हूँ
इस कसक के साथ कि
काश! हम दोनों पहले ही
साथ - साथ आए होते।


[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]