Thursday, December 27, 2012

मानवता बच जायेगी




आकाश के
दिलकश नजारों को
प्रदुषण ने छीन लिया

रातों की
नींद को ट्रकों की
चिल्लपौं ने छीन लिया

फलों का
स्वाद फर्टिलाईजर 
ने छीन लिया

बच्चों  के
बचपन को होमवर्क
ने छीन लिया

परिवार की
  एकता को महंगाई   
 ने छीन लिया

दादी की
कहानियों को टी वी
 ने छीन लिया

पक्षियों के
कलरव को टावरों
ने छीन लिया

आपसी प्यार को
 अहम् की संकीर्णता
 ने छीन लिया

दुनिया के अमन
चैन को आतंकवाद
 ने छीन लिया

देर सवेर सही
 लेकिन एक दिन
यह बात समझ में आयेगी।

जीतनी जल्दी
समझ में आएगी
मानवता बच जायेगी।




  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

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