आज भी दर्पण पर
लगी बिंदी करती है
तुम्हारा इन्तजार
जहां बैठती तुम सजने-संवरने को
तुम्हारा इन्तजार
जहां बैठती तुम सजने-संवरने को
आज भी पार्क की
[पगडण्डी करती है
तुम्हारा इन्तजार
[पगडण्डी करती है
तुम्हारा इन्तजार
जहाँ जाती तुम घूमने को
आज भी छत पर बैठे
पक्षी करते हैं
तुम्हारा इन्तजार
पक्षी करते हैं
तुम्हारा इन्तजार
दाना-पानी चुगने को
आज भी शाम ढले
तुलसी का बिरवा करता है
तुम्हारा इन्तजार
दीया-बाती जलाने को
आज भी दरवाजे पर
रंभाती है धोळी गाय
तुम्हारे हाथों से
तुम्हारे हाथों से
गुड़-रोटी खाने को
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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