Monday, March 6, 2017

तुम्हारा इन्तजार

आज भी दर्पण पर
 लगी बिंदी करती है
तुम्हारा इन्तजार
जहां बैठती तुम सजने-संवरने को 

आज भी पार्क की
[पगडण्डी करती है
तुम्हारा इन्तजार 
जहाँ जाती तुम घूमने को

आज भी छत पर बैठे
पक्षी करते हैं
तुम्हारा इन्तजार 
दाना-पानी चुगने को 

आज भी शाम ढले
तुलसी का बिरवा करता है
तुम्हारा इन्तजार
दीया-बाती जलाने को

आज भी दरवाजे पर 
रंभाती है धोळी गाय
 तुम्हारे हाथों से 
 गुड़-रोटी खाने को




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। ) 




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