भूल गया मैं सब रंगरलियाँ
सुख गई खुशियों की बगियाँ
जीवन की झांझर बेला में
पाई मैंने विछोह की पीड़ा
लाख बार मन को समझाया
सुख गई खुशियों की बगियाँ
जीवन की झांझर बेला में
पाई मैंने विछोह की पीड़ा
कैसे मैं तुम को लिख भेजूं
अपने विरह-दर्द की पीड़ा। लाख बार मन को समझाया
फिर भी मन नहीं भरमाया
आँखों से अश्रु जल बहता
कैसे छिपाऊं मन की पीड़ा
कैसे मैं तुम को लिख भेजूं
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।
डुब गया सूरज खुशियों का
संग-सफर छूटा जीवन का
डुब गया सूरज खुशियों का
संग-सफर छूटा जीवन का
तुम तो मुक्त हुई जीवन से
मैंने पाई वियोग की पीड़ा
मैंने पाई वियोग की पीड़ा
कैसे मैं तुम को लिख भेजूं
अपने विरह-दर्द की पीड़ा।
( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )
( यह कविता "कुछ अनकही ***"में छप गई है। )
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