Wednesday, February 21, 2018

करले मन की होली में

रंग प्यार का लिए खड़ा मैं
नैन बिछाए राहों में
एक बार आ जाओ सजनी
प्रीत जगाने बाहों में

चार होलियां निकल गई
बिना तुम्हारे रंगों में
एक बार आ जाओ जानम
रंग खेलेंगे होली में

यादों के संग मन बहलाया
मुश्किल बहलाना होली में
एक बार आ जाओ मितवा
धाप लगाए चंगों में

लहरों जैसा मन डोले
आज मिलन की आसा में
एक बार आ जाओ रमणी
घूमर घाले होली में

मन का भेद, मर्म आँखों का
खुल जाता है होली में
एक बार आ जाओ मानिनी
करले मन की होली में।




[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]

Saturday, February 10, 2018

बसंत आ रहा



 उन्मुक्त हो पवन, गुलशन में बह रहा   
 ठिठुरन  का अंत हुवा, बसंत आ रहा।   

                              अंग - अंग धरा का, पुलकित हो रहा  
                              मस्त भंवरा बाग में, कलियाँ चुम रहा ।  
                             

बसंती रंग ओढ़, चमन मुस्करा रहा
उपवन में  फूलों पर, यौवन छा रहा।  

                                 सिंदूरी आभा लिए,पलास दमक रहा
                                कोयलियां बोल उठी, भंवरा  डोल रहा।  

नभ में पयोधर देख, मयूर नाच रहा                                         
बोगनवेलिया खिला, टेसू मचल रहा।  

                                 अमुवा भी बौराया, पपीहा बोल रहा 
                                 धरती के हर कोने में, बसंत छा रहा।

नए - नए रंग लिए,  मधुमास आ रहा, 
स्वर्गिक सुन्दरता का, प्रवाह बह रहा।  


                                यौवन में उमंग भर, ऋतुराज आ रहा   
                               प्रेमियों के मिलन का, त्योंहार आ रहा।  


( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
  






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Friday, February 2, 2018

कांटे बिछा कर नहीं

तुम अपना घर चाहे जीतनी रोशनी से सजाओ
मगर किसी कोठरी का दीपक बुझा कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने ऐशगाह बनाओ
मगर किसी का आशियाना उजाड़ कर नहीं।

तुम अपने घर में चाहे जीतनी खुशियाँ मनाओ
मगर किसी बेबस की खुशियाँ छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे  जितने पकवान बनाओ
मगर किसी गरीब का निवाला छीन कर नहीं।

तुम अपने लिए चाहे जितने  फूल  बिछाओ
मगर किसी की राह में कांटे बिछा कर नहीं। 




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

बिन सजनी के कैसा सावन

रिमझिम-रिमझिम मेहा बरसे 
बूंदन परत फुहार रे 
दादुर, मौर, पपीहा बोले 
कोयल करत पुकार रे 

कोई गाये सावन कजरी 
कोई मेघ मल्हार रे 
बिन सजनी के सूना लागे 
घर आँगन ओ द्वार रे 

सारी सखियाँ बनठन आई 
झुले  प्रेम हिण्डोले रे 
मेरी सजनी दूर बसत है 
लागे सावन बेरी रे 

बिन सजनी के कैसा सावन 
कैसा तीज-त्योंहार रे 
फीका लगता मुझ को सावन 
बिन बिछुवन झंकार रे।  



[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]