वेदियां सजाते रहे
हवन करते रहे
तिलक लगाते रहे
भंडारा देते रहे
मगर अंतस का
परिवर्तन नहीं कर सके।
तीर्थों में घूमते रहे
दर्शन करते रहे
धर्मग्रन्थ पढ़ते रहे
प्रसाद लेते रहे
मगर जीवन से
राग-द्वेष को नहीं छोड़ सके।
व्याख्यान सुनते रहे
जयकारा लगते रहे
माला फेरते रहे
कीर्तन करते रहे
मगर अहं का
अवरोध नहीं हटा सके।
मंदिरों में जाते रहे
आरतियां करते रहे
घंटियां बजाते रहे
चरणामृत लेते रहे
मगर भोग का
चिंतन नहीं छोड़ सके।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteधार्मिक कर्मकांड दिखावटी और खोकले बन गए हैं।
ReplyDeleteमंदिर या मस्जिद जैसी संस्थाओं में शांति नहीं रही
अंतस व विचार बिगड़े रह जाते हैं।
बहुत सुंदर रचना।
नई रचना- समानता
आभार आपका।
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