मैं अब
सयानों की तरह
चुप रहना चाहता हूँ।
जीवन की
धीरे-धीरे बुझती
लो को देखना चाहता हूँ।
अकेले
आगे की यात्रा की
तैयारी करना चाहता हूँ।
सुख-दुःख
धैर्य और लालच सब
साथ ले जाना चाहता हूँ।
पतझड़ में
झड़ते पत्तों की तरह
उड़ जाना चाहता हूँ।
शरीर छोड़
आत्मा के संग
चले जाना चाहता हूँ।
अनन्त में
जहां झिलमिलते हैं तारे
वहाँ जाना चाहता हूँ।
वक्त के साथ कितना कुछ बदल जाता है जो बात कभी जानी ना थी वो भी पहचानने लगते है । यही जीवन प्रवाह है ।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteचाहें या ना चाहें ये तो होना ही है ...जो होना ही है उसे स्वीकार कर चाह लेना वाकई बहुत बेहतर होता होगा ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआप सभी का स्वागत और आभार।
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