गाँव में वह पीपल का पेड़ भी नहीं रहा
जिस पर हम सब मिल कर खेलते थे
जिस पर हम सब मिल कर खेलते थे
आशु काका की बैलगाड़ी भी नहीं रही
जिस पर चढ़ कर शहर जाया करते थे
मेरा गांव अब बदल गया है।
कुम्हार काकी का अब नाच भी नही रहा
जो शादियों में ढोल पर हुआ करता था
जो शादियों में ढोल पर हुआ करता था
दूध- दही की नदियाँ भी अब नहीं बहती
जो घर पर मेहमान आने पर बहती थी।
मेरा गाँव अब बदल गया है।
अलागोजों पर कजली भी नहीं गाई जाती
जो गायों को चराते समय चरवाहे गाते थे
गौरियां भी अब चौपाल में गीत नहीं गाती
जो गणगौर के पूजन के समय गाती थी
मेरा गाँव अब बदल गया है।
गाँव में अब निर्विरोध चुनाव भी नहीं होते
जो मालू काका के सरपंच रहने तक हुए थे
चौपाल पर अब हँसी ठहाके भी नहीं लगते
जो बलजी के रहते समय तक लगा करते थे
मेरा गाँव अब बदल गया है।
गाँव में अब पनघट पर पायल भी नहीं बजती
जो कभी बनठन करऔरतें पानी लाने जाती थी
गांव में अब लम्बे घूँघट भी दिखाई नहीं देते
जो कभी गाँव की औरतें निकाला करती थी |
मेरा गाँव अब बदल गया हैं।
कोलकत्ता
२८ फ़रवरी,२००९
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )