सियाळा री रातां
काली पीली रातां
सी पङै मोकळो
काँई करै डोकरो
काँई करै डोकरो
हाड- हाड काँप ज्यावै
नसां में लोही जम ज्यावै
थर थर कांपतो
गुदङा ने दबातो रात काटे
चिड़कल्यां री चीं- चीं सुण
डरतो डरतो मुंडो बार काढ़े
अगुणा में उजास देख
जी मांय जी आवै
सियाळा री रातां
दोरी घणीं जावै।
कोलकत्ता ७ अप्रेल, २o११
दोरी घणीं जावै।
कोलकत्ता ७ अप्रेल, २o११
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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