सरसों झूम रही है खेतों में
आम्र मंजरी महक उठी है बागों में
अनुरागी भंवरा ढूंढ़ रहा कलियों को
कोयलियां कुक रही है कुंजों में
कोयलियां कुक रही है कुंजों में
मुस्करा कर ऋतुराज
भर रहा बसंत को बाहों में
रंग-बिरंगे फूल खिले हैं
बाग़ और बगीचों में
बाग़ और बगीचों में
बसंती चादर ओढ़
सरसों झूम उठी है खेतों में
सरसों झूम उठी है खेतों में
लताऐं कर रही पेड़ों का आलिंगन
गौरैया फुदक रही है आँगन में
लौट आओ तुम भी
मदमाते बसंत की बहारों में
आकर एक बार फिर से
समा जाओ मेरी बाँहों में।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
आकर एक बार फिर से
समा जाओ मेरी बाँहों में।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]