लॉकडाउन के चलते
मजदूर बेघर हो रहा,
कोरोना और बेरोजगारी
दोनों की मार से मर रहा।
सैंकड़ों मील पैदल चल
अपने घर लौट रहा,
कोरोना त्रासदी का दर्द
उसके चेहरे से झलक रहा।
घर वापसी का सफर
मौत का सफर बन रहा,
सड़कों पर जगह-जगह
हादसों का शिकार हो रहा।
सरकार पर्याप्त मात्रा में
गाड़ियां नहीं दे पा रही,
पैदल यात्रा करने वालों पर
पुलिस लाठियाँ बरसा रही।
देश के निर्माणकर्ताओं की
आज किसी को चिंता नहीं,
सैंकड़ों घर बनाने वालों का
आज अपना कोई घर नहीं।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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