तुमसे बिछुड़ कर
मैंने पहली बार अनुभव किया है कि
बिना जान भी जिया जा सकता है
और मैं तनहाई में जिन्दा हूँ।
मेरे जीवन में
कोई अस्तित्व का पल नहीं
जो तुमने छुवा न हो
कोई सांस नहीं जिसमें
तुम्हारा अहसास न हो
कोई याद नहीं जिस पर
तुम्हारा हस्ताक्षर न हो।
असीम आनन्द था तुम्हारे सानिध्य में
जहां भी जाता सदा तुम्हारी
खुशबू मेरे साथ रहती
अब मेरा कहने को कुछ नहीं बचा है ?
मेरी यादों का घूँघट भी
अब धुंधला होता जा रहा है
तुम होती तो क्या होता पता नहीं
बस खो जाता बाँहों में
निहारता रहता आसमान में चाँद को
अब तो मैं एक खाली कमरे जैसा हूँ
या शायद दीवार पर टँगा हुआ चित्र।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
वाह
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील कुमार जी।
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