जेठ-आषाढ़ की गर्मियों में
सत्संगी चले आते
अपने परिवार के संग
शांति की खोज में
एकांत तपोवन
मुनि की रेती
ऋषिकेश में
जहाँ पहाड़ियों की कोख में
कलकल बहती गंगा
सरसराती ठंडी हवा
वृक्षों पर चहकते पंछी
निः शब्द वातावरण में
गूंजते प्रभु के गान
सभी लगाते ध्यान
करते प्रभु गुणगान
बना खिचड़ी मिटाते क्षुधा
रात में सो जाते गंगा किनारे
आनंद की लहरे लेती हिलोरें
देखत ही देखते
सब कुछ बदल गया
शहरी सभ्यता ने
उथल-पुथल मचा दी
सुख-सुविधा की सारी सामग्री
मनोरंजन का सारा सामान
जंगल में अमंगल करने
आ गया
पहाड़ों की कोख में
छिपी शांति गायब हो गई
पंछियों का कलराव
पत्तों की गुफ्तगू
वृक्षों का प्रेमालाप
प्रभु गुणगान
सब कुछ गंगा की लहरों में
समा गया।