Tuesday, October 26, 2010

चाँदनी रात


चाँदनी रात में
तुम छत पर खड़ी
अपने बालों को संवार रही थी

मैं पढ़ रहा था
लेकिन नजर बार -बार
तुम्हारी तरफ उठ रही थी

तुमने मोनालिसा की तरह
मुस्करा कर पूछा -
क्या देख रहे हो ?

मैंने कहा -
तुम्हारी शोख अदाओं को
जिन्हें देख सितारे भी
मदहोश हो रहें हैं

चाँदनी भी शरमा कर
अपना मुँह  बादलों में
छिपा रही है 

मेरी तो बात ही क्या है 
आज तो चाँद भी तुमको देखने
जमीन पर आना चाहता है

तुमने  लज्जाकर
दोनों हाथों  से  अपने
मुँह को ढाँप लिया

मानो मेरी
बात को सहज ही
स्वीकार कर लिया। 


कोलकत्ता
२५  अक्टुम्बर, २०१० 
(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )

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