तालाब जिसमें तैरते थे,
वो भी कब के पट गए
झेल -झेल प्यास सारे
कूए कब के सूख गए
पीपल औ बरगद सारे
धीरे धीरे सुख गए
खेत ओ खलिहान सूने
बिन हल बैलों के हो गए
बँट गए खेत सभी
आँगन दीवारें खिंच गयी
बँट गया गाँव सारा
प्यार मोहबत घट गयी
कुम्हारों के बास में
एक ठेका खुल गया
पीकर किसी के घर घुसा
उसका सीर फट गया
ढोर किसी के खेत में
चरते -चरते घुस गए
बात इतनी बढ़ गयी
लट्ठ आपस में चल गए
राजनीत्ति की डायन अब
गांवो में भी घुस गई
पैसों की बर्बादी हुई
आपस में रंजिस बढ़ गई
गाँव में जब जाकर देखा
गाँव में जब जाकर देखा
गाँव शहर को भाग रहा
मुझको सब अजाना लगा
गाँव सयाना हो रहा।
कोलकत्ता
८ जून,२०११
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(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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(यह कविता "कुमकुम के छींटे" नामक पुस्तक में प्रकाशित है )
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