Friday, February 14, 2014

जीने का मजा आ गया




तुम्हारे साथ अब कुछ भी नामुमकिन सा नहीं लगता 
अब तो आसमान के तारों को गिनने का भी मन बन गया है। 

आज कल न जाने क्यों सब कुछ ख़ास सा लगता है 
चीजे तो वही है लेकिन जीने का मजा आ गया है। 

कभी चाहत थी हर ख़ुशी मेरी हो 
लेकिन तुम्हारा साथ पा कर बाँटना आ गया है। 

अब शब्दो का इस्तेमाल क्यों करे हम 
जब आँखों से सब कुछ कहना आ गया है।  

प्यार तो सभी करते है लेकिन 
हमें कर के निभाना आ गया है।  

तुम्हारा मुस्कराना और मेरी झुकती आँखों का सलाम 
पचास वर्ष साथ जीने का मजा आ गया है। 

हीर-राँझा की जगह हमारे प्यार की चर्चाऐ हैं 
तुम्हारी सांसो की महक से हवाओं का रुख बदल गया है। 

(हमारी शादी के पचास वर्ष २० मई २०१४ को पुरे हो रहे हैं, इसी ख़ुशी में वेलेनटाइन डे पर शब्दो के कुछ फूल मैंने उसकी झोली में रखे ) 

 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Monday, February 10, 2014

आओ गाँव लोट चले

अब नहीं सहा जाता
कंकरीट के जंगल में 
भीड़ भरा यह सूनापन
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन

घर के पिछवाड़े बेलों में 
महकने लगी होगी गंध 
बाजरी के सिट्टो पर अब 
लग गया होगा मकरंद 
मक्की के भुट्टो पर 
छाया होगा अब यौवन 
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन 

खेत की मेड़ों पर अब भी
खड़ी होगी मीठी बाते  
खेजड़ी की छांव तले
गूँजते होंगे अलगोजे
चिड़िया चहक रही होगी आँगन 
आओ, गाँव लौट चले मुदित मन 

सरसों बल खाती होगी
पछुवा धूल उड़ाती होगी 
अंगड़ाता होगा खलिहानों में
फिर से नया सृजन
बैसाखी पर नाचा होगा
खेतोँ  में फिर से योंवन
आओ, गाँव लोट चले मुदित मन। 


 [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]

प्रकृति की चाहत

धूप चाहती थी
झुग्गी-झोंपड़ियों को रोशन करना 
घास-फूस के मकानो को गर्म करना 
सीलन और बदबू को हटाना
किन्तु वो कर नहीं सकी 
भीमकाय भवनो की छाया ने 
उसे अपने आगोश में समेट लिया

नदी चाहती थी 
उन्मुक्त हो कर बहना 
खेतो खलिहानो को लहलहाना 
किसान के चहरे पर मुस्कराहट लाना 
किन्तु वो कर नहीं सकी 
भीमकाय बाँधों ने 
उसे अपने आगोश में ले लिया

हवा चाहती थी
वायु मंडल को स्वच्छ रखना 
जन-मानस को शुद्ध प्राण-वायु देना 
फूलो कि सौरभ को बिखेरना 
किन्तु वो कर नहीं सकी 
प्रदूषण के भीमकाय दैत्य ने 
उसे अपने आगोश में जकड़ लिया। 



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

Monday, February 3, 2014

मेरे प्यारे दादी जी

अमेरिका से मुझसे मिलने
आई मेरी दादी जी 
सुन्दर कपडे और खिलौने 
लाई मेरी दादी जी 

बड़े प्यार से मुझे सुलाएं 
मेरी प्यारी दादी जी 
लौरी गाये गीत सुनाएं 
मेरी प्यारी दादी जी 

सेंव-पपीता मुझे खिलाएं
मेरी प्यारी दादी जी 
ताजे फल का जूस पिलाएं 
मेरी प्यारी दादी जी 

लुका-छिपी का खेल खिलाएं 
मेरी प्यारी दादी जी 
मैं रूठूँ तो मुझे मनाएं 
मेरी प्यारी दादी जी। 

(आयशा १४ महीने की  हो गयी, तब उसके दादी जी ने उसे देखा है। दादी जी कहती है कि उनका बचपन लौट आया है। आयशा भी अपनी दादी जी गोदी में खूब खेलती है।)



[ यह कविता  "एक नया सफर " में प्रकाशित हो गई है। ]