Monday, February 10, 2014

प्रकृति की चाहत

धूप चाहती थी
झुग्गी-झोंपड़ियों को रोशन करना 
घास-फूस के मकानो को गर्म करना 
सीलन और बदबू को हटाना
किन्तु वो कर नहीं सकी 
भीमकाय भवनो की छाया ने 
उसे अपने आगोश में समेट लिया

नदी चाहती थी 
उन्मुक्त हो कर बहना 
खेतो खलिहानो को लहलहाना 
किसान के चहरे पर मुस्कराहट लाना 
किन्तु वो कर नहीं सकी 
भीमकाय बाँधों ने 
उसे अपने आगोश में ले लिया

हवा चाहती थी
वायु मंडल को स्वच्छ रखना 
जन-मानस को शुद्ध प्राण-वायु देना 
फूलो कि सौरभ को बिखेरना 
किन्तु वो कर नहीं सकी 
प्रदूषण के भीमकाय दैत्य ने 
उसे अपने आगोश में जकड़ लिया। 



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

No comments:

Post a Comment