वो गीता
जिसे तुम रोज पढ़ा करती थी
अपने ममता भरे स्वर में
आज भी तुम्हे पुकारती है
वो धौली
जिसे तुम रोज सुबह
अपने हाथ से रोटी खिलाती थी
आज भी दरवाजे पर रंभाती है
वो धौली
जिसे तुम रोज सुबह
अपने हाथ से रोटी खिलाती थी
आज भी दरवाजे पर रंभाती है
वो तुलसी
जहाँ तुम रोज घी का
दीपक जलाया करती थी
आज भी तुम्हारी राह टेरती है
वो बिंदिया
जिसे तुम रोज दर्पण के
किनारे लगाती थी
आज भी तुम्हारी राह देखती है
वो दरवाजा
जहाँ तुम शाम को बैठती थी
आज भी तरसती आँखों से
तुम्हारी राह देखता है
जहाँ तुम शाम को बैठती थी
आज भी तरसती आँखों से
तुम्हारी राह देखता है
वो लाडली
पोती आयशा जिसे तुम
रोज गोद खिलाया करती थी
आज भी तुम्हें ढूंढती है।
[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]
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