विरह की अगन में दहक रही है जिंदगी
कंपित लौ सा धुँआ दे रही अब जिंदगी।
विरह के दुःखों से कंटक भरी है जिंदगी
अधरों की मुस्कान खो चली अब जिंदगी।
[ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]
कंपित लौ सा धुँआ दे रही अब जिंदगी।
विरह के आघात को सह रही है जिंदगी
रातों के नेह स्पर्श से दूर है अब जिंदगी।
अधरों की मुस्कान खो चली अब जिंदगी।
विरह की वेदना से फ़साना बनी हैं जिंदगी
टूटी हुई पतवार सी लगती है अब जिंदगी।
विरह के दर्दों को जिए जा रही है जिंदगी
पर कटे पंछी सी लगती है अब जिंदगी।
पर कटे पंछी सी लगती है अब जिंदगी।
विरह के विशाद में घुल रही अब जिंदगी
बिन पानी मीन सी तड़फ रही है जिंदगी।
[ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]
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