जब तक तुम साथ थी
मेरी हर शाम
खुशबुओं से नहाई होती थी
कहकहों और
मुस्कराहटों के बीच
चाय की चुस्कियाँ चलती थी
लेकिन आज
तुम्हारी यादों के चंद सिक्के
कुल जमा पूँजी रह गई है मेरे पास
जैसे ही शाम फैलाती है
क्षितिज पर मटमैली चादर
मेरे मन पर छाने लगती है निराशा
धुँधलका खिड़की से झाँक
चटकाने लगता है
विरह के दर्द की कली-कली
खामोश रात में
बंद पलकों से तलासता हूँ
अतीत की धुंध में तुम्हारी यादें
बंद पलकों से तलासता हूँ
अतीत की धुंध में तुम्हारी यादें
करता हूँ प्रयास
तुम्हारी यादों के संग
तुम्हारी यादों के संग
रम जाने का
दूर खिड़की में
टिमटिमाती रोशनी देख
सोचता हूँ शायद विरह ही है
प्रेम का अनन्त।
[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]