बच्चों को आजकल हम
खिलौनों से नहीं खिलाते
न उन्हें गुड्डा-गुड्डी से
खेलना सिखाते।
दबा देते हैं हम
बस्तों के बोझ तले
उनके मासूम बचपन को
किलकारियां और किल्लोले
भेंट हो जाती है स्कूलों को।
खिलने से पहले ही
मुरझा जाता है बचपन
बसंत में भी पतझड़ सा
लगने लगता है कोमल तन।
खिलौनों से नहीं खिलाते
न उन्हें गुड्डा-गुड्डी से
खेलना सिखाते।
दबा देते हैं हम
बस्तों के बोझ तले
उनके मासूम बचपन को
किलकारियां और किल्लोले
भेंट हो जाती है स्कूलों को।
खिलने से पहले ही
मुरझा जाता है बचपन
बसंत में भी पतझड़ सा
लगने लगता है कोमल तन।
बचपन बीत जाता है
रटते हुए किताबों को
वो नहीं देख पाता
बचपन के विहानों को।
No comments:
Post a Comment