Monday, April 6, 2015

छलक पड़ती है आँखे

आज से
ठीक नौ महीने पहले
काल के क्रूर हाथों ने
तुमको छीन लिया था मुझ से

जब तक
तुम्हारा साथ था
भोर की उजली धूप की तरह
सुख लिपटा रहता था मुझे से

खुशियाँ सारी
रहती थी मेरी मुट्ठी में
हथेलियाँ छोटी पड़ जाती थी
थामने सुख

पारे की तरह फिसल गया
छूप गया है रूठ कर
वक़्त की झाड़ियों में सुख

याद आ रहा है
तुम्हारा हँसता चेहरा
गजल कहती
वो आँखे

दिवार पर लगी
तुम्हारी तस्वीर देख
छलक पड़ती है
मेरी आँखे।

                                                [ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]

कोलकाता
६ अप्रैल,२०१५













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