गाँव के घर में
बरामदे में लगी खूँटी पर
पिताजी टाँगते थे अपनी पगड़ी
घर से पिताजी
जब भी बाहर निकलते
सिर पर पहले पहनते पगड़ी
पिताजी की पगड़ी
अहसास दिलाती
गाँव में उनके रुतबे का
गाँव के छोटे-बड़े
सभी पिताजी को
सेठजी कह कर बुलाते
समय बीतता गया
पिताजी भी गाँव छोड़
शहर में बस गए
घर की खूँटी
सदा-सदा के लिए
बिन पगड़ी के रह गई
गाँव के घर के
बरामदे में आज भी
लगी है पगड़ी वाली खूँटी
पिताजी की यादें
जेहन में उतर आती है
जब देखता हूँ पगड़ी वाली खूँटी।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
लाजवाब
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील कुमार जी।
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