हमारे घरों में
आज ध्वनि रहित
प्रदूषण घुस गया है।
आज आदमी
अपने ही घर में
संवादहीन हो गया है।
बेटा अपने रूम में
कम्प्यूटर पर बैठा है
बहु फेस बुक पर
वार्ताएं कर रही है।
पोते-पोतियाँ
मोबाइल पर
अस.एम.अस.
कर रहे हैं।
हर कोई
अपने कमरे में
टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप
मोबाईल से उलझा बैठा है।
पुरे घर में एक
गहन चुप्पी छाई हुई है
किसी के पास आपस में
बोलने का समय नहीं है।
भीतर ही भीतर
लोग घुट रहे हैं
टूट रहे हैं इस
संवादहीन प्रदूषण से।
लेकिन क्या कभी
हमने सोचा है
कि ये सब हमारी ही
महत्वकांक्षाओं की उपज है।
बड़े दिखने और
बड़े दिखाने की ख्वाईस
हमें कहाँ ले जा रही है
ज़रा सोचिए, विचार कीजिए।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
आज ध्वनि रहित
प्रदूषण घुस गया है।
आज आदमी
अपने ही घर में
संवादहीन हो गया है।
बेटा अपने रूम में
कम्प्यूटर पर बैठा है
बहु फेस बुक पर
वार्ताएं कर रही है।
पोते-पोतियाँ
मोबाइल पर
अस.एम.अस.
कर रहे हैं।
हर कोई
अपने कमरे में
टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप
मोबाईल से उलझा बैठा है।
पुरे घर में एक
गहन चुप्पी छाई हुई है
किसी के पास आपस में
बोलने का समय नहीं है।
भीतर ही भीतर
लोग घुट रहे हैं
टूट रहे हैं इस
संवादहीन प्रदूषण से।
लेकिन क्या कभी
हमने सोचा है
कि ये सब हमारी ही
महत्वकांक्षाओं की उपज है।
बड़े दिखने और
बड़े दिखाने की ख्वाईस
हमें कहाँ ले जा रही है
ज़रा सोचिए, विचार कीजिए।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
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