दिन तो सकुशल गुजर गया
रात बस अब ढलने को है,
जीवन-सफर तो रीत गया
अब नए सफर की तैयारी है।
सब कुछ तो कर लिया
फिर भी प्यास बुझी नही,
यह आदिकाल से बनी रही
आजीवन तो मिटी नहीं।
इच्छा तो बढ़ती जाती है
वो कभी नहीं घटती प्यारे,
पर ये साँसें तो सीमित हैं
वे कभी नहीं बढ़तीं प्यारे।
रूप-चाँदनी दो दिन की
क्षणभंगुर यह जीवन है,
जो आया है वह जायेगा
कोई भी नहीं अनश्वर है।
अब आवाहित को आना है
इस पंछी को उड़ जाना है,
और कंचन जैसी काया को
कुछ क्षण में जल जाना है।
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
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