Friday, June 28, 2013

बचपन में शादी

मैं ऑफिस से
घर आ कर बैठा ही था
कि किसी ने आकर
अपनी नरम-नरम हथेलियों से
मेरी दोनों आँखे बंद करदी।


बताइये मै कौन हूँ ?
उसने मुझे से पूछा-
मैंने  अपने हाथों से
उन हाथों का स्पर्श
करते हुए कहा -पुजा
ऊँ हूँ - उत्तर आया
मैंने कहा राधिका
वो भी नहीं
और झट से मेरी आँखे खोल
सामने आकर बोला-
मैं गौरव हूँ दादा जी
मैं मुस्करा उठा।

उसने मुझे
हाथ में लिए एलबम को
दिखाते हुए पूछा-
दादा जी यह आप और
दादीजी के बचपन का फोटो है ना ?
मैंने कहा- हाँ
आप कितने हैण्डसम लग रहे हैं
और दादीजी भी कितनी क्यूट लग रही है।

(राजस्थान के गाँवों में पहले शादियाँ बहुत छोटी उम्र में कर दिया करते थे। मेरी शादी के समय उम्र मात्र सत्तरह  साल की थी और सुशीला की साढ़े तेरह साल। गौरव मेरी शादी का एलबम देख रहा था। )









Wednesday, June 26, 2013

बिरथा गुमान करणों (राजस्थानी कविता )

पिण्डल्यां मांय 
चमके बीजल्यां 
पांसल्यां मेळे
चबका

बूकियां मांय चालै 
बाईंटां
डील री चटकै 
हाडक्या

पगां में चालै 
रीळा 
सांसा चाळै
धोंकणी ज्यूं

आंख्यारी
चली गई जौत
कान हुग्या 
साव बैरा 

गाळा पर
लटक चामड़ी
माथै रा बाळ
हुग्या धोळा

अब औ गुमान
करणो बिरथा
कै म्हारी जड़ा
जमीं मांय उंडी लागै।




प्रकृति का ताण्डव




केदारनाथ मंदिर
उतराखण्ड का प्राचीन धाम
करोड़ों हिन्दुओं की श्रद्धा का केंद्र
जहाँ सुनाई दे रही है
सदियों से आस्था की गूंज


वही मंदिर आज 
खण्डहर बना खडा है
न पुजा,न पाठ न आरती, न भोग
भांय-भांय करता 
सिर्फ और सिर्फ सन्नाटा


शिव मूक है
गंगा कर रही है तांडव 
इंद्र देवता का रौद्र रूप देख
मन्दाकिनी ने भी 
धारण कर लिया है विकराल रूप

चारों तरफ 

बिखरी पड़ी है लाशें 
कहीं पत्थरों में दबी हुयी है 
तो कहीं मलबे में फंसी हुयी 
अकाश में मंडरा रहे है सैंकड़ों गिद्ध

पहाड़ों से

ऐसा जलजला आया कि 
तबाही का मंजर पसर गया 
प्रकृति के इस भयावह 
तांडव को लोग वर्षो याद रखेगें  

मिट्टी के सैलाब में
हजारों बह गए 
हजारों अपने 
अपनों को ढूंढते 
रह गए। 




  [ यह कविता "एक नया सफर" में प्रकाशित हो गई है। ]









Saturday, June 22, 2013

अनकहा दर्द


प्यार के लिए सात समुद्र पार
कभी कभी महँगा पड़ जाता है
                 
                     एक का सानिध्य पाने के लिए
                   देश-परिवार सभी छूट जाता है

जवानी तो जोश में बीत जाती है
लेकिन बुढ़ापा भारी पड़ जाता है

                   अपनो की यादे सताने लगती है
                   एकाकीपन भारी लगने लगता

घुट कर उमर बीत जाती है
एक जीवन अपनो के बिना

                    छोटी आकांक्षायें भी रह जाती है
                    मन में किसी के साथ बाँटे बिना

उम्र भर तड़पते ही रह जाते है
पाने के लिए अपनो का प्यार

                         विदेशी धरती पर नहीं मिलता
                          अपनी धरती का सच्चा प्यार

जब यादों की गांठे खुलती है
गली दोस्तो की यादें आती है

                      दिल में सिर्फ यादे ही बची रहती है
                      जिन्दगी घिसे सिक्के सी लगती है।

(पिट्टसबर्ग,अमेरिका में एक वृद्ध दम्पती से मिल कर, मुझे जो कुछ अनुभव हुवा,उसी को मैंने शब्द दिए हैं )



  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]


Wednesday, June 19, 2013

बादल फट पड़े



१७ जून को देवभूमि में तांडव मचा
बादल क्या फटे मौत कहर ढा गयी
                         
                            कच्चे मकानों की क्या बात करे
                          चार चार मंजिले इमारते बह गयी

अलकनंदा-मंदाकिनी  है पुरे उफान पर
कोई थमने का कही नाम नहीं ले रही है
                 
                    पुरे गाँव और शहर पानी में बह गए है
                   आसमानी कहर को धरती झेल रही है

उतराखण्ड में ऐसा तांडव कभी नहीं हुआ
जल कुलांचे भर रहा था हिरण की तरह
                 
                   क़यामत का मंजर और तमतमाई लहर
                  मकान गिर रहे थे तास के पत्तो की तरह

अभावग्रस्त पार्वत्य समाज बेहाल हो गया
नदी किनारे बसा जीवन बरबाद हो गया

                   दिल दहलाने वाला बना तबाही का मंजर
                    होटले, मकान,दुकान, सब कुछ बह गया

मुक्ति के प्रतिक तीर्थो में  भ्रमण करते
लाखो तीर्थयात्री जगह -जगह फसं गए

                     हजारो की संख्या में मरे, हजारों घायल हुए
                      गाडिया,बसे और बुलडोज़र सभी बह गए

चारो और सुनाई दे रही थी खौपनाक चीखें
दिख रहा था मलबे में दबी लाशो का मंजर

                      देव भूमि में ऐसा विनाशकारी बरपा कहर
                      लील गयी सब कुछ रस्ते में उफनती लहर

हमें इस चेतावनी को समझना होगा
ग्लोबल वार्मिंग को कम करना होगा

                      परमाणु हथियारों का प्रसार रोकना होगा
                          नहीं तो फिर इसी तरह से मरना होगा।




 [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]



Tuesday, June 11, 2013

गंगा घाट

गंगा घाट पर
शाम के समय बैठ जाते हम
किनारे खड़ी नौका में

लहरों के थपेड़ो से
डोलती रहती नौका और हम
झुलते रहते नौका में

याद है मुझे आज भी
वो पुरे चाँद की रात जब
हम दोनों बैठे हुए थे नौका में

चाँद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी में और लहरे
किनारे को छु लौट रही थी जल में

तुम जल तरंग सी
स्वर लहरी में भजन गा रही थी
बैठी हुयी नौका में

तुम्हारा भजन मुझे
कभी प्रवचन तो कभी पावन श्रुति
सा लग रहा था गंगा जल में

चाँद भी साथ-साथ हँस रहा था
चांदनी भी खिलखिला रही थी
गंगा के बहते जल में

तुम्हारी साँसों से कस्तुरी और
रोम-रोम से चन्दन की सुगंध
महक रही थी नौका में

तुम्हारी सुवास आभास करा रही थी
असंख्य स्वर्गिक अनुभूतियों का
गंगा घाट पर नौका में।


  [ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]

















Sunday, June 9, 2013

सम्बन्ध विच्छेद

आज उसके
सम्बन्ध विच्छेद दस्तावेज पर
न्यायाधीश ने हस्ताक्षर कर दिया

कर्मकांडी वकीलों ने भी
उसके रिश्ते की मृत्यु पर
गरुड़ पुराण का पाठ पढ़ दिया

उसने भी आज प्यार का
सारा कूड़ा कचरा दिल से खुरच कर
बाहर फैंक दिया

रिश्ते की कब्र पर कफ़न गिरा
एक दुःखद अतित का
अन्त कर दिया

जितने भी पत्र और तस्वीरे थी
उनको भी गंगा मे बहा
तर्पण कर दिया

लगे हाथ गंगा किनारे
यादों और अहसासों का
पिण्डदान भी कर दिया

दफ़न कर दिया जिन्दगी का
हर वह लहमा जो उसने
साथ बिताया

एक लम्बे अर्से के बाद
आज उसके दिल ने
राहत भरा दिन बिताया।