गंगा घाट पर
शाम के समय बैठ जाते हम
किनारे खड़ी नौका में
लहरों के थपेड़ो से
डोलती रहती नौका और हम
झुलते रहते नौका में
याद है मुझे आज भी
वो पुरे चाँद की रात जब
हम दोनों बैठे हुए थे नौका में
चाँद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी में और लहरे
किनारे को छु लौट रही थी जल में
तुम जल तरंग सी
स्वर लहरी में भजन गा रही थी
बैठी हुयी नौका में
तुम्हारा भजन मुझे
कभी प्रवचन तो कभी पावन श्रुति
सा लग रहा था गंगा जल में
चाँद भी साथ-साथ हँस रहा था
चांदनी भी खिलखिला रही थी
गंगा के बहते जल में
तुम्हारी साँसों से कस्तुरी और
रोम-रोम से चन्दन की सुगंध
महक रही थी नौका में
तुम्हारी सुवास आभास करा रही थी
असंख्य स्वर्गिक अनुभूतियों का
गंगा घाट पर नौका में।
[ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
शाम के समय बैठ जाते हम
किनारे खड़ी नौका में
लहरों के थपेड़ो से
डोलती रहती नौका और हम
झुलते रहते नौका में
याद है मुझे आज भी
वो पुरे चाँद की रात जब
हम दोनों बैठे हुए थे नौका में
चाँद का प्रतिबिम्ब
इठला रहा था नदी में और लहरे
किनारे को छु लौट रही थी जल में
तुम जल तरंग सी
स्वर लहरी में भजन गा रही थी
बैठी हुयी नौका में
तुम्हारा भजन मुझे
कभी प्रवचन तो कभी पावन श्रुति
सा लग रहा था गंगा जल में
चाँद भी साथ-साथ हँस रहा था
चांदनी भी खिलखिला रही थी
गंगा के बहते जल में
तुम्हारी साँसों से कस्तुरी और
रोम-रोम से चन्दन की सुगंध
महक रही थी नौका में
तुम्हारी सुवास आभास करा रही थी
असंख्य स्वर्गिक अनुभूतियों का
गंगा घाट पर नौका में।
[ यह कविता "कुछ अनकही***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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