प्रियजन कहते हैं वो चली गई
आप उसे अब भूल जाओ
लेकिन मैं कैसे भूल जाऊँ ?
प्रेम केवल यादों की
चौसर मात्र तो नहीं है कि
इतनी सहजता से भूल जाऊँ
उसका प्रेम तो मेरे
रोम-रोम में घुल गया है
जिसे भुलाना मेरे लिए
इतना सहज नहीं रह गया है
जिसे भुलाना मेरे लिए
इतना सहज नहीं रह गया है
उसके अहसासों का
उसकी उमंगों का
उसकी मुस्कानों का
एक संसार मेरे मन में बस गया है
मैं कैसे करुं उन
साँसों को अलग जो मेरी
साँसों के संग घुल-मिल गयी है
मैं कैसे लौटाऊँ
उसके बदन की खुशबु
जो मेरे भीतर समा गयी है
मैं कैसे अलग करुं उसकी छायां
जो मेरी छायां संग
एकाकार हो गयी है
मैं कैसे भुलावुं उन
खूबसूरत क्षणों की यादें
जो मेरे दिल में बस गयी है
जब तलक
इस धरा पर मैं रहूंगा
तब तलक उसकी यादें
मेरी स्मृति में बसी रहेगी।
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" पुस्तक में प्रकाशित हो गई है ]
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