तुम्हारे महाप्रयाण को देख
आँखों से अश्रुओं की
सरिता बहने लगी
साँसें अंदर से
लम्बी और गहरी
निकलने लगी
मैं तुम्हारे मुखमंडल को
दोनों हाथों से सहलाने लगा
काश! तुम कुछ बोलो
अपनी अंतिम बेला में
दो शब्द कहने के लिए
काश ! तुम अपना मुँह खोलो
लेकिन तुम तो
अलविदा की बेला में भी
निस्पृह थी
गर्व से ऊँचा मस्तक
शान्ती से मुंदी आँखें
त्याग की प्रतिमूर्ति
लग रही थी
लेकिन सुकून था मेरे दिल में
कि एक दिन मैं तुम से
फिर मिलूंगा
पता नहीं कहाँ और किस तरह
पर तुम से जरूर मिलूंगा
उस पराजगत में ही सही
लेकिन मिलूंगा।
[ यह कविता "कुछ अनकहीं " में छप गई है।]
आँखों से अश्रुओं की
सरिता बहने लगी
साँसें अंदर से
लम्बी और गहरी
निकलने लगी
मैं तुम्हारे मुखमंडल को
दोनों हाथों से सहलाने लगा
काश! तुम कुछ बोलो
अपनी अंतिम बेला में
दो शब्द कहने के लिए
काश ! तुम अपना मुँह खोलो
लेकिन तुम तो
अलविदा की बेला में भी
निस्पृह थी
गर्व से ऊँचा मस्तक
शान्ती से मुंदी आँखें
त्याग की प्रतिमूर्ति
लग रही थी
लेकिन सुकून था मेरे दिल में
कि एक दिन मैं तुम से
फिर मिलूंगा
पता नहीं कहाँ और किस तरह
पर तुम से जरूर मिलूंगा
उस पराजगत में ही सही
लेकिन मिलूंगा।
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