Friday, May 1, 2015

तुमने बहुत छोटा जीवन जिया

उस दिन तुमने अपनी
नारी-जन सुलभ चातुरी से
मेरी नादानी को बिसरा दिया

चली गयी तुम मुझे बिना बताये
अपने सामने मेरी आँख से
आँसूं भी नहीं गिरने दिया

वैसे अच्छा किया तुमने
वरना तुम वैधव्य का जीवन
सहन भी नहीं कर पाती

बहुत कठिन होती यह राह
क्या तुम विछोह का दर्द
सहन कर पाती ?

तुम तो बिना मांग भरे
और बिना बिंदी लगाए
एक दिन भी नहीं रह पाती

नित नयी रंग-बिरंगी
साड़ियाँ पहने वाली क्या तुम
सफ़ेद साड़ी पहन पाती

मुझे दुःख केवल इस बात का है
कि इस बड़े युग में भी तुमने
बहुत छोटा जीवन जीया।


  [ यह कविता 'कुछ अनकही ***"में प्रकाशित हो गई है ]



No comments:

Post a Comment