दिवाली है आज
बहुएं-बेटे दीप जला कर
कर रहे हैं घर में रोशनी
पोते-पोतियाँ
रंग-बिरंगें कपड़े पहन
जला रहे हैं आतिशबाजी
बहुऐं सजा रही है
खाने की थाली
ढ़ेर सारे पकवानों के संग
मगर आज तुम नहीं हो
कौन करेगा मनुहार
कि थोड़ा तो और लो
कौन पूछेगा कि
कैसा बना है हलवा ?
कैसा उगटा है
कांजी बड़े का पानी ?
मेरी दीवाली तो तब होती
जब तुम मेरे साथ होती
बिना तुम्हारे क्या दिवाली
और क्या अब होली ?
कोलकाता
३० अक्टुम्बर,२०१६
[ यह कविता "कुछ अनकही ***" में प्रकाशित हो गई है। ]
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