Tuesday, August 28, 2018

एक मनःस्थिती का चित्रण

तुम्हारी यादें
हर रोज देती हैं मुझे 
बासंती भोर की ताजगी 
पहली बारिश की सुवाश 
पूस की रात सी ठंडक 
अश्विन के दिन सी धुप
जेठ की दुपहरी सी गरमी 
शरद के बादलों सी नरमी 
पूनम की चांदनी सी चमक 
गुलाब के फूलों सी महक 
हर मौसम के संग 
वीराने में जैसे बहार हो आई 
तुम्हारी याद ताजा हो आई। 



कल हम गांव चलेंगे

गांवों से शहर की ओर 
पलायन करती 
युवा पीढ़ी को हम देखेंगे  
कल हम गांव चलेंगे 

वर्षा के इन्तजार में 
धरती की फटती 
देह को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

निर्जल पड़ी 
बावड़ी की सुनी 
पनघट को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

गांव की गलियों में 
भूखे पेट घूमती 
गायों को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

शहर से लौट आने का 
इन्तजार करती पथराई 
आँखों को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे 

ध नंगी देह में 
खेतों में काम करते 
अन्नदाता को हम देखेंगे 
कल हम गांव चलेंगे।

Saturday, August 18, 2018

भवसागर पार लगाओ

प्रभु! करुणा बरसाओ
आवागमन मिटे जीवन से
अब ऐसी भक्ति जगाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! ज्ञानसुधा बरसाओ
मिथ्या मोह मिटे जीवन से
अब ऐसी राह दिखाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! दिव्यधार बहाओ
कर्म के पाप कटे जीवन से
अब ऐसी लगन लगाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु! प्रेमसुधा बरसाओ
काम-क्रोध मिटे जीवन से
अब ऐसी कृपा बनाओ
भवसागर पार लगाओ।

प्रभु !शांतिसुधा बरसाओ
लोभ-मोह मिटे जीवन से
अब ऐसी कृपा बनाओ
भवसागर पार लगाओ।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )









Friday, August 17, 2018

मीठे बोल बोलने वाली

मुझको बिना बताये वो, लम्बे सफर में चली गई
पता नहीं कब मिलेगी, अनंत सफर जाने वाली।

ज्योत्सना सी स्निग्ध सुन्दर, तारिका थी गगन की
तोड़ गई वो वादा अपना,  प्रेम-गीत गाने वाली।

प्रीति की अनुभूति थी वो, रूप की साकार छवि
बीच राह में छोड़ गई, सातों कसमें खाने वाली।

कोयल जैसी वाणी थी, फूलों जैसी  नाजुक थी
जीवन मेरा सूना कर के, चली गई जाने वाली।

मेरे दिल पर छोड़ गई, प्यार भरी यादें अपनी
कैसे भूलू मैं उसको, मीठे बोल बोलने वाली।









Thursday, August 16, 2018

मेरी अभिलाषा

मैं बनाना चाहता हूँ
इस धरा को वृन्दावन
जिस के कुंज-कुंज में
हो प्रभु का दर्शन।

मैं लिखना चाहता हूँ
प्रभु की पवित्र कथा
जिसे पढ़ कर दूर हो
सारे जग की व्यथा।

मैं बनाना चाहता हूँ
प्रभु का सुन्दर चित्र
जिसे देख सब की
आत्मा बने पवित्र।

मैं बहाना चाहता हूँ
प्रेम की रसधार
जिससे सबको मिले
आनंद की बयार।

मैं जलाना चाहता हूँ
भक्ति-ज्ञान की चेतना
जिसके प्रकाश में
मिटे सब की वेदना।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



Monday, August 13, 2018

यह इन्तजार तुम्हारा

मैं रोज करता हूँ
तुम्हारा इन्तजार कि
शायद तुम आज आओगी

वर्षात आई और चली गई
मैं इन्तजार करता रहा
मगर तुम नहीं आई 

पुरे सावन छतरी ताने 
इन्तजार में खड़ा रहा
मगर तुम नहीं आई

हर सुबह से शुरु होता है
तुम्हारा इन्तजार और
शाम ढल जाती है

अगले दिन फिर एक नए
इन्तजार के साथ
एक नई भोर शुरू हो जाती है

करते-करते इन्तजार
पोर-पोर टूट गया है मेरा
कब ख़त्म होगा
यह इन्तजार तेरा।