कितने बरस बीत गए
कितने सावन निकल गए
रीत रहा है तन-मन
याद आ रहे हैं वो दिन
जब साथ थी तुम।
गांव का घर
माटी पुती दीवारें
गोबर लिपे आँगन
चूल्हे से उठता धुँवा
रोटी की महक और
घूँघट में झांकती तुम।
जाड़ों की रातें
रजाई में जग कर
धीरे-धीरे करते बातें
दूर जा कर लिखते खत
आँखें भिगोती तुम।
खेतों के बीच छुपते
खेला करते आँख-मिचौली
चुपके से मुझे बुलाने
टिचकारी मारती तुम।
हिमालय की वादियाँ
गीता भवन का घाट
गंगा की ठंडी लहरें
शाम ढले बैठते नौका में
पानी उछालती तुम।
यादों में खोया
किस घर लौटूं !
कहो ना ! बिन तुम ..... ।
कितने सावन निकल गए
रीत रहा है तन-मन
याद आ रहे हैं वो दिन
जब साथ थी तुम।
माटी पुती दीवारें
गोबर लिपे आँगन
चूल्हे से उठता धुँवा
रोटी की महक और
घूँघट में झांकती तुम।
जाड़ों की रातें
रजाई में जग कर
धीरे-धीरे करते बातें
दूर जा कर लिखते खत
आँखें भिगोती तुम।
खेतों के बीच छुपते
खेला करते आँख-मिचौली
चुपके से मुझे बुलाने
टिचकारी मारती तुम।
हिमालय की वादियाँ
गीता भवन का घाट
गंगा की ठंडी लहरें
शाम ढले बैठते नौका में
पानी उछालती तुम।
यादों में खोया
किस घर लौटूं !
कहो ना ! बिन तुम ..... ।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
No comments:
Post a Comment