Monday, February 25, 2019

तुम्हारी आहटें आज भी जिन्दा है

कहाँ है वो काली जुल्फें
जिन्हें देख भँवरे भी गुनगुनाते हैं

कहाँ है वो माथे की बिंदियाँ
जिसे देख तारे भी झिलमिलाते हैं

कहाँ है वो शरबती आँखें
जिन्हें देख खंजन भी शर्माते हैं 

कहाँ है वो नरम-नाजुक होंठ
जिन्हें देख गुलाब भी शर्माता है

कहाँ हैं वो रेशमी हथेलियाँ
जिन्हें छू मेंहन्दी भी शुर्ख हो जाती है

कहाँ है वो हसीन पांव
जहाँ बैठ पायल भी छम-छमाती है

मेरे मन की चादर पर 
तुम्हारी आहटें आज भी जिन्दा है। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )



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