कहाँ है वो काली जुल्फें
जिन्हें देख भँवरे भी गुनगुनाते हैं
कहाँ है वो माथे की बिंदियाँ
जिसे देख तारे भी झिलमिलाते हैं
कहाँ है वो शरबती आँखें
जिन्हें देख खंजन भी शर्माते हैं
जिन्हें देख भँवरे भी गुनगुनाते हैं
कहाँ है वो माथे की बिंदियाँ
जिसे देख तारे भी झिलमिलाते हैं
कहाँ है वो शरबती आँखें
जिन्हें देख खंजन भी शर्माते हैं
कहाँ है वो नरम-नाजुक होंठ
जिन्हें देख गुलाब भी शर्माता है
कहाँ हैं वो रेशमी हथेलियाँ
जिन्हें छू मेंहन्दी भी शुर्ख हो जाती है
कहाँ है वो हसीन पांव
जहाँ बैठ पायल भी छम-छमाती है
जिन्हें देख गुलाब भी शर्माता है
कहाँ हैं वो रेशमी हथेलियाँ
जिन्हें छू मेंहन्दी भी शुर्ख हो जाती है
कहाँ है वो हसीन पांव
जहाँ बैठ पायल भी छम-छमाती है
मेरे मन की चादर पर
तुम्हारी आहटें आज भी जिन्दा है।
( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )
No comments:
Post a Comment