शिव शंभू आओ धरती पर
हे जग के विषपायी
एक वायरस ने दुनियाँ को
कर दिया धराशायी
सभी घरों में कैद हो गए
कैसी यह लाचारी है
कैसा महासंक्रमण आया
कैसी यह महामारी है
रोज रोज गिरती है लाशें
कौन करे अब गिनती
यमराज से कह कर थक गए
नहीं सुनते वो विनती
एक मास्क में सिमट गई
साँसें सारे जीवन की
नहीं मिली है दवा आज तक
इस व्याधि के उपचार की
थम रहा जीवन पृथ्वी पर
छाई संध्या बेला है
जीवन तो लगता है जैसे
दो दिन का बस मेला है।
( यह कविता स्मृति मेघ में प्रकाशित हो गई है। )
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