Saturday, July 17, 2021

रुबाइयाँ

चार दिनों के जीवन में तुम भी कुछ कर लो।
चार दिनों  की रात  चाँदनी  प्यार से भर लो।
चार दिनों का सारा खेल सबको गले लगालो,
दुनिया तुमको  याद करे  ऐसा कुछ कर लो।

दिन सुबह उगता है शाम को ढल जाता है।
सूर्य आता है सुबह शाम को फिर जाता है।
फ़लसफ़ा इस जीवन का  बस इतना ही है,
जीवन  आता है  और आ के चला जाता है। 

घर में घु सता हूँ घर से बाहर निकलता हूँ।
करने के  लिए अब मैं कुछ नहीं करता हूँ।
रोज अखबार के पन्नों को पलट कर पढ़ते, 
वक़्त को काटता हूँ उम्र को हल करता हूँ।

सभी  कुछ  होकर भी अपना कुछ नहीं है।
जिन्दगी  मौत पर अपना कोई  बस नहीं है।
तुम जितना  चाहो जोड़ कर रख लो घर में,
साथ में जाना तुम्हारे एक दमड़ी भी नहीं है।

7 comments:

  1. बहुत खूब । यथार्थ कहती रचनाएँ ।

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  2. संगीता जी हृदय से आभार आपका।

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  3. सभी कुछ होकर भी अपना कुछ नहीं है।
    जिन्दगी मौत पर अब कोई बस नहीं है।
    तुम जितना चाहो जोड़ कर रख लो घर में,
    साथ में जाना तुम्हारे एक दमड़ी भी नहीं है।---बहुत खूब

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    1. धन्यवाद संदीप कुमार जी।

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  4. धन्यवाद सुशील कुमार जी।

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  5. अति सुन्दर सृजन ।

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