चार दिनों के जीवन में तुम भी कुछ कर लो।
चार दिनों की रात चाँदनी प्यार से भर लो।
चार दिनों का सारा खेल सबको गले लगालो,
दुनिया तुमको याद करे ऐसा कुछ कर लो।
दिन सुबह उगता है शाम को ढल जाता है।
सूर्य आता है सुबह शाम को फिर जाता है।
फ़लसफ़ा इस जीवन का बस इतना ही है,
जीवन आता है और आ के चला जाता है।
घर में घु सता हूँ घर से बाहर निकलता हूँ।
करने के लिए अब मैं कुछ नहीं करता हूँ।
रोज अखबार के पन्नों को पलट कर पढ़ते,
वक़्त को काटता हूँ उम्र को हल करता हूँ।
सभी कुछ होकर भी अपना कुछ नहीं है।
जिन्दगी मौत पर अपना कोई बस नहीं है।
तुम जितना चाहो जोड़ कर रख लो घर में,
साथ में जाना तुम्हारे एक दमड़ी भी नहीं है।
बहुत खूब । यथार्थ कहती रचनाएँ ।
ReplyDeleteसंगीता जी हृदय से आभार आपका।
ReplyDeleteसभी कुछ होकर भी अपना कुछ नहीं है।
ReplyDeleteजिन्दगी मौत पर अब कोई बस नहीं है।
तुम जितना चाहो जोड़ कर रख लो घर में,
साथ में जाना तुम्हारे एक दमड़ी भी नहीं है।---बहुत खूब
धन्यवाद संदीप कुमार जी।
Deleteवाह
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील कुमार जी।
ReplyDeleteअति सुन्दर सृजन ।
ReplyDelete