Saturday, January 5, 2019

ख्वाब अधूरा रह गया

तोड़ गई वो वादा अपना, सात फेरों के संग किया
चली गई वो स्वर्गलोक में, बिच राह में छोड़ दिया।

खुशियाँ रूठ गई जीवन की,जीवन मेरा बिखर गया
  किश्ती डूबी मेरे जीवन की, बीच भंवर में फंस गया।

रंग उड़ा मेरे जीवन का, आँखों से सपना बह गया
खुशियाँ डूबी जीवन की,  बासंती मौसम रीत गया।

किस से दिल की बात कहूँ, मन का मीत चला गया
अंतहीन है विरह वेदना,  प्यार में  जीवन छला गया।

जब जब मैंने याद किया, नयनों में नीर उतर आया
ठण्डी पड़ गई मेरी साँसें, जीवन चापल्य रीत गया।

\सदियों जैसा दिन लगता है, मेरा जीवन ठहर गया
  रात गुजरती आँखों में अब, ख्वाब अधूरा रह गया। 




( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Tuesday, November 27, 2018

बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया

सोने के मृग के पीछे
दौड़ते-दौड़ते जवानी बीत गई
बुढ़ापा आ गया
जब आँखों से दिखना मन्द हुआ
कानों से सुनना कम हुआ
दांतों का गिरना शुरू हुआ
साँसों का फूलना शुरू हुआ
तब जाकर समझ आया
कि यह सब तो छलावा था।

तब तक एक लम्बी उम्र बीत गई
जीवन की शाम ढल गई
बुढ़ापा और बूढ़ा हो गया
अब मैं नहीं दौड़ता सोने के मृग पीछे
अब मैं अपनी जड़ों की तरफ देखता हूँ 
जो अब खोखली होती जा रही है
न जाने किस आइला-अम्फान में
जीवन की जड़े उखड़ जाएं।


( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Wednesday, November 21, 2018

काश कोई लौट आए अपना

गाँव के नौजवान
जो गाँव के गौरव थे
शहर चले गए
वो चलाते हैं वहाँ रिक्शा
खींचते हैं गाड़ियाँ
करतें हैं दिहाड़ी
भरते हैं पेट अपना।

गाँव की ललनायें
जो गाँव की शोभा थी
शहर चली गईं 
वो वहाँ करती हैं 
घरों में चौका-बरतन
लगाती हैं पोंछा 
धोती हैं कपड़ा
भरती हैं पेट अपना।

गाँव के नौनिहाल
जो गाँव की मुस्कान थे
शहर चले गए
वो वहाँ करते हैं
गाड़ियों की धुलाई
ढाबों पर खिलाते हैं खाना
भट्टों पर करते हैं काम
भरते हैं पेट अपना।

गाँव में अब केवल
बुड्ढे रहते हैं
जो राह में आँखें बिछाये
करते हैं इन्तजार
काश ! कोई लौट आए अपना।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Friday, November 16, 2018

पाखंडी बाबा

मोटी माला गले पहन कर
चन्दन तिलक लगाओ,
एक चदरिया कंधे रख कर
पाखंडी बाबा बन जाओ।

लम्बी-चौड़ी दाढ़ी रख कर
उसमें इत्र लगाओ,
अपने को भगवान् बता कर
नित पूजा करवाओ।

हाथ फेर कर रोग भगाओ 
जम कर माल उड़ाओ,
अंधभक्तों को मूर्ख बना कर
स्वर्ग के ख्वाब दिखाओ।

बालाओं को संग में रख कर 
अपनी हवस मिटाओ
राजनिती में पहुँच बना कर 
अपनी धौंस जमाओ। 

चेला-चेली मुंडो जम कर
नित आश्रम खुलवाओ,
सत्संगों में भीड़ जुटा कर 
मोटी रकम कमाओ। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )









Tuesday, November 13, 2018

विक्टोरिया मेमोरियल

कोलकाता का
विक्टोरिया मेमोरियल गार्डन,
सुबह का सुहाना समय
मन्द-मन्द बहती बयार। 

मैं दोस्तों के संग 
रोज की तरह मॉर्निंग वॉक पर,
पगडण्डी के दोनों ओर लगी है
रंग-बिरंगे सुन्दर फूलों की कतारें। 

मैं चाहूँ तो हाथ बढ़ा कर
तोड़ सकता हूँ इन फ़ूलों को
मगर मैं नहीं तोड़ता। 

कल किसी ने एक डाल से
गुलाब का फूल तोड़ लिया था,
फूल तो मौन साधे 
व्यथा को सहता रहा। 

मगर इसी एक बात पर
कल पूरे विक्टोरिया में
वह डाल बहुत बदनाम हुई,
दिन भर में किसी ने आँख उठा कर 
उस डाल की ओर देखा तक नहीं। 



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, November 10, 2018

मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं

कल-कल करती गंगा बहती
सुन्दर हिमगिरी की शाखाएं
श्यामल बादल शिखर चूमते
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

धवल दर्पण सी निर्मल गंगा
अमृत मय पय पान कराऐं
चाँदी फूल बिखराएं लहरें
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

बहते झरने कलरव करते
मन को मोहे धवल धाराएं
तरल तरंगित नाद सुनाए
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।

तपोभूमि ऋषि-मुनियों की
गूँजें यहां पर वेद- ऋचाएं 
नीलकंठ महादेव बिराजे
मोहक स्वर्गाश्रम की छटाएं।



( यह कविता "स्मृति मेघ" में प्रकाशित हो गई है। )

Saturday, November 3, 2018

जन्म दिन का आना

हर वर्ष की तरह
जन्म दिन ने आकर
मेरा दरवाजा खटखटाया 

मैंने स्वागत के साथ 
उसे अपने पास बैठाया
उसने प्यार से पूछा ---- 
कैसा रहा तुम्हारा साल ?
क्या किया इस साल ?

मैं क्या जबाब देता 
साल का एक-एक दिन तो 
वैसे ही निकल गया था 
पता ही नहीं चला कि
कब साल लगा और कब बीता 

मैंने झुकी नज़रों से कहा -
इस साल तो कुछ नहीं किया 
लेकिन अगली साल
जरूर कुछ करूंगा 

उसने अनमने भाव से कहा ---
जीवन के बहत्तर साल बीत गए
बुढ़ापा भी दस्तक देने लग गया
अब तो सम्भल जाओ

जो कुछ करना है करलो
कब जीवन की सांझ ढल जाएगी
पता भी नहीं चलेगा।